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वा॒चस्पतिं॑ वि॒श्वक॑र्माणमू॒तये॑ मनो॒जुवं॒ वाजे॑ऽअ॒द्या हु॑वेम। स नो॒ विश्वा॑नि॒ हव॑नानि जोषद् वि॒श्वश॑म्भू॒रव॑से सा॒धुक॑र्म्मा। उ॒प॒या॒मगृ॑हीतो॒ऽसीन्द्रा॑य त्वा वि॒श्वक॑र्मणऽए॒ष ते॒ योनि॒रिन्द्रा॑य त्वा वि॒श्वक॑र्मणे ॥४५॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

वा॒चः। पति॑म्। वि॒श्वक॑र्म्माण॒मिति॑ वि॒श्वऽक॑र्म्माणम्। ऊ॒तये॑। म॒नो॒जुव॒मिति॑ मनः॒ऽजुव॑म्। वाजे॑। अ॒द्य। हु॒वे॒म॒। सः। नः॒। विश्वा॑नि। हव॑नानि। जो॒ष॒त्। वि॒श्वश॑म्भू॒रिति॑ वि॒श्वऽश॑म्भूः। अव॑से। सा॒धुक॒र्म्मेति॑ सा॒धुऽक॑र्म्मा। उ॒प॒या॒मगृ॑हीत॒ इत्यु॑पया॒मऽगृ॑हीतः। अ॒सि॒। इन्द्रा॑य। त्वा॒। वि॒श्वक॑र्म्मण॒ इति॑ वि॒श्वऽक॑र्म्मणे। ए॒षः। ते॒। योनिः॑। इन्द्रा॑य। त्वा॒। वि॒श्वक॑र्म्मण॒ इति॑ वि॒श्वऽक॑र्म्मणे ॥४५॥

यजुर्वेद » अध्याय:8» मन्त्र:45


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब गृहस्थ कर्म में राजा और ईश्वर का विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हम (अद्य) अब (वाजे) विज्ञान वा युद्ध के निमित्त जिन (वाचः) वेदवाणी के (पतिम्) स्वामी वा रक्षा करनेवाले (विश्वकर्म्माणम्) जिन के सब धर्म्मयुक्त कर्म्म हैं, जो (मनोजुवम्) मन चाहती गति का जाननेवाला है, उस परमेश्वर वा सभापति को (हुवेम) चाहते हैं सो आप (साधुकर्म्मा) अच्छे-अच्छे कर्म्म करनेवाले (विश्वशम्भूः) समस्त सुख को उत्पन्न करानेवाले जगदीश्वर वा सभापति (नः) हमारे (अवसे) प्रेम बढ़ाने के लिये (विश्वानि) (हवनानि) दिये हुए सब प्रार्थनावचनों को (जोषत्) प्रेम से मानें जिन (ते) आपका (एषः) यह उक्त कर्म्म (योनिः) एक प्रेमभाव का कारण है, वे आप (उपयामगृहीतः) यमनियमों से ग्रहण किये (असि) हैं, इससे (विश्वकर्म्मणे) समस्त कामों के उत्पन्न करने तथा (इन्द्राय) ऐश्वर्य्य के लिये (त्वा) आप की प्रार्थना तथा (विश्वकर्म्मणे) समस्त काम की सिद्धि के लिये (इन्द्राय) शिल्पक्रिया कुशलता से उत्तम ऐश्वर्य्यवाले (त्वा) आप का सेवन करते हैं ॥४५॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। जो परमेश्वर वा न्यायाधीश सभापति हमारे किये हुए कामों को जाँच कर उन के अनुसार हम को यथायोग्य नियमों में रखता है, जो किसी को दुःख देनेवाले छल-कपट काम को नहीं करता, जिस परमेश्वर वा सभापति के सहाय से मनुष्य मोक्ष और व्यवहारसिद्धि को पाकर धर्म्मशील होता है, वही ईश्वर परमार्थसिद्धि वा सभापति व्यवहारसिद्धि के निमित्त हम लोगों को सेवने योग्य है ॥४५॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ गृहस्थकर्म्मणि राजविषयमीश्वरविषयं चाह ॥

अन्वय:

(वाचः) देववाण्याः (पतिम्) स्वामिनं पालकं वा (विश्वकर्म्माणम्) विश्वानि सर्वाणि धर्म्माणि कर्म्माणि यस्य तम् (ऊतये) रक्षणाय (मनोजुवम्) मनोगतिम् (वाजे) विज्ञाने युद्धे वा (अद्य) अस्मिन्नहनि। निपातस्य च। (अष्टा०६.३.१३६) इति दीर्घः (हुवेम) आह्वयेम (सः) (नः) अस्माकम् (विश्वानि) अखिलानि (हवनानि) प्रार्थनावाग्दत्तानि (जोषत्) जुषेत, अत्र व्यत्ययेन परस्मैपदम् (विश्वशम्भूः) विश्वं सर्व सुखं भावयति (अवसे) प्रीतये (साधुकर्म्मा) साधूनि श्रेष्ठानि कर्म्माणि यस्य (उपयामगृहीतः) (असि) (इन्द्राय) ऐश्वर्य्याय (त्वा) त्वाम् (विश्वकर्म्मणे) अखिलकर्म्मणोत्पादनाय (एषः) (ते) (योनिः) (इन्द्राय) शिल्पविद्यैश्वर्य्याय (त्वा) त्वाम् (विश्वकर्म्मणे) साधनाय। अयं मन्त्रः (शत०४.६.४.५.) व्याख्यातः ॥४५॥

पदार्थान्वयभाषाः - वयमद्य वाच ऊतये यं वाचस्पतिं विश्वकर्म्माणं मनोजुवं हुवेम। यः साधुकर्म्मा विश्वशम्भूः सभापतिर्नोऽवसे विश्वानि हवनानि जोषत्। यस्य ते तवैष योनिरस्ति, यस्त्वमुपयामगृहीतोऽस्यतस्त्वां विश्वकर्म्मण इन्द्राय हुवेम, विश्वकर्म्मण इन्द्राय त्वा सेवेमहि चेत्युपाश्लिष्टोऽन्वयार्थः ॥४५॥
भावार्थभाषाः - अत्र श्लेषालङ्कारः। यः परमेश्वरो न्यायाधीशो वाऽस्मदनुष्ठितानि कर्म्माणि विदित्वा तदनुसारेणास्मान् नियच्छति। यः कस्याप्यकल्याणमधर्म्मकं कर्म च न करोति, यस्य सहायेन मनुष्यो योगमोक्षव्यवहारविद्याः प्राप्य धर्म्मशीलो जायेत, स एवास्माभिः परमार्थव्यवहारसिद्धये सेवनीयोऽस्ति ॥४५॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात श्लेषालंकार आहे. जो परमेश्वर किंवा न्यायाधीश राजा सर्वांच्या कामाची परीक्षा करून त्यांना नियमांचे पालन करण्यास भाग पाडतो तसेच जो (एखाद्याशी) दुःख, छळ, कपटयुक्त कर्म करत नाही. ज्या परमेश्वराच्या साह्याने माणसांना मोक्ष मिळतो व राजाच्या साह्याने व्यवहारसिद्ध होऊन माणूस धार्मिक बनतो तो परमेश्वर परमार्थ सिद्धीसाठी व राजा व्यवहारसिद्धीसाठी स्वीकारणे योग्य होय.